चुनौती का गरिमामय तरीके से सामना

रास्ता शब्द सुनते हैं तो कोई पक्की सड़क या रेतीली-पथरीली पगडंडी मूक निमन्त्रण देती-सी प्रतीत होती है। समय कभी-कभी ऐसे मोड़ पर ला खड़ा कर देता है कि किसी भी दिशा में रास्ता दिखाई नहीं देता और हम बदहवास से खड़े रह जाते हैं। दयनीयता की हद तक पहुंच कर शंका-कुशंका के पैण्डुलमसे झूलते रहते हैं। बादलों से निकली बूंद की तरह-मैं बचूंगी या मिटूंगी, की ऊहापोह में ऊर्जा का क्षरण आरम्भ होता है। न घर के रहते हैं, न घाट के। जगहंसाई होती है सो अलग। ऐसे में अपना रास्ता आप बनाने की जरूरत होती है। समस्त ऊर्जा का केन्द्रीकरण कर एक बिन्दु पर फोकस करना होता है तब कहीं जाकर अंतर्नाद उत्पन्न होता है-जाग तझको दर जाना है। जागरण की क्रिया एक बार आरम्भ हो जाती है तो न अंधेरा रास्ता रोक पाता है, न बीहड जंगल और न बनैले पश ही। अप्प दीपो भव का सूत्र हाथ लगता है। सारता-असारता का भेद समझ आता है। यह भी समझ आता है कि बत्ती गल होने पर हाय अंधेरा, हाय अंधेरा, रटने से काम नहीं चलता। काम चलाने के लिए दीपक-बाती जुटाने होते हैं। तब एक संकल्प जन्म लेता है-मुझे भंवर का भय दिखलाकर, रोको मत तटबंधों पर। हो सकता है पार नदी के, खुशबू का फव्वारा हो। र इस फव्वारे का लाभ उठाने के लिए तन- मन को साधना होता है। सुख-सुविधाओं को तिलांजलि देनी होती है। रास्ते के कंकर-पत्थर, कटक चनने होते हैं। सकारात्मक ताने-बाने से बुननी होती है जीवन-चदरिया। तब श्रेष्ठतम स्थिति तक पहुंची बूंद की याद आती है-एक सन्दर सीप का मंह था खला, वह उसी में जा पड़ी, मोती बनी। स्पष्ट है, बादलों से निकलते . समय जो बूंद संशय के आवरण में लिपटी थी. दृढ़ निश्चय से भरपूर इरादे ने उसे सर्वोत्तम स्थिति तक पहंचा दिया इस आशय की एक बोधकथा है। येव्येनी नामक एक लडका एक दिन गिर पड़ा। उसकी पीठ पर चोट लगी। ठीक होने की बजाय चोट कूबड़ में बदल गई। येव्येनी की इच्छा थी पायलट बनने की। एक दिन उसका इलाज कर रहे डॉक्टर ने उससे कहा-तुम पायलट बन सकते हो मगर तुम्हें दो-चार-पांच साल पलस्तर में लिपटकर पीठ के बल लेटे रहना होगा। ठीक सवा पांच साल वह पीठ के बल लेटा रहा। एक दिन वह भी आया जब येव्येनी पायलट बना। यह सब देखकर लोगों के आश्चर्य की सीमा न रही। इसी प्रकार की एक नीति कथा दर्शाती है कि यकायक सभी रास्ते कैसे बंद हो जाते हैं और फिर खुल भी जाते हैं। एक व्यक्ति चोरी के अपराध में पकड़ा गया। उसे राजा के सामने पेश किया गया। राजा ने कहा-चूंकि तुमने अपराध किया है, इसलिये मृत्युदंड दिया जाएगा। अपनी अन्तिम इच्छा बताओ, पूरी की जाएगी। अपराधी ने विनम्रता से कहा, राजन ! मैं मरने से पहले ऐसे व्यक्ति के हाथों से एक पेड़ा खाना चाहता हूं, जिसने तन या मन से कभी चोरी न की हो। यह सुनकर राजा न दरबारया का आर दखा लाकन कोई भी उठकर नहीं आया। राजा को लगा जैसे अब तक खुले सभी रास्ते बंद हो गए। उसने मस्तिष्क के घोड़े दौड़ाए। त्वरित सोच से रास्ता खुला। राजा ने अपराधी से कहा, तुम्हारी सजा माफ़ की जाती है क्योंकि हम सब चोर हैं। चोर, चोर को सजा देने का अधिकारी नहीं होता। जिंदगी में आगे बढ़ने के लिए अवसर की राह देखने की नहीं, अवसर का निर्माण करने की जरूरत होती है। अच्छे अवसर कभी समाप्त नहीं होते। ये हमसे हजारों किलोमीटर दूर नहीं, बल्कि हमारे आसपास ही होते हैं। आवश्यकता होती है इन्हें पहचानने की। बहुत-सा धैर्य व हिम्मत जुटाने की। मूक, बधिर और नेत्रहीन हेलन केलर अपने सब कार्य स्वयं करती थी। मध्य युग में इटली में माइकल एंजलो नामक शिल्पकार संगमरमर के शिलाखंडों में अपने प्राण होमते हए प्रभ ईसा के विविध चित्र अंकित करते थे। एक बार उन्हें एक मूर्ति बनाने का काम मिला तो उन्होंने एक ऐसी ममतामयी मां का चित्र बनाना चाहा जो अपने दूध की प्रत्येक बूंद में अखिल मानवता को प्यार करने वाली संतान के निर्माण में संलग्न हो। मां के विभिन्न रूपों का अध्ययन करने के लिए उन्होंने गांव-नगर की खाक छानी। शिलाखंडों को थपथपाकर पूछते, क्या तुम मूर्ति-रूप लेने के इच्छुक हो? कोई प्रतिक्रिया न पाकर वे उस शिलाखंड को छोड़कर आगे बढ़ जाते। लोगों ने उन्हें मानसिक रोगी तक करार दे दिया ।अन्तत-उन्हें मनचाहा पत्थर मिल गया। वे मूर्ति बनाने में लग गए। जब मूर्ति बनकर तैयार हई तो दर्शक इस कदर मुग्ध हो गए कि कलाकार की सराहना में एक शब्द भी कहना ध्यान नहीं रहा। कलाकार को इस बात की कोई परवाह नहीं थी क्योंकि वह अभिभूत था इस बात से कि उसने चुनौती का गरिमापूर्ण तरीके से सामना किया।